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Sector 93 Noida

मेरी गाय को क्यों निकाला?

कुछ समय से मेरे मन में गाय पालनें की इच्छा प्रबल होती जा रही थी। एक गाय वाले को बोल दिया और अपनी शर्त भी बता दी कि मुझे एक अनुशासित गाय चाहिए, कम गोबर करनें वाली और बिना मतलब भें-भें ना करनें वाली। अंततः एक गाय मिल ही गई। गाय वाले को निर्देश दे दिया गया कि, सोसायटी के अंदर हरियाली बहुत है इसलिए गाय को काला चश्मा ही पहना कर अंदर ले आना ताकि पेड़ पौधे ना चरे।

गाय आ गईय सुन्दर सफेद गाय, लाल टीका लगाए, रंगबिरंगी घंटी, माला पहने…। गाय वाले नें मेरी पार्किंग में खूंटे से बांध दिया। लोगों नें गाय को देखा थोड़ा आश्चर्य हुआ उन्हें। फिर लोगों नें रोटी और खाना भी देना शुरू कर दिया। पूजा-पाठी लोग श्रद्धा वश मेवा भी खिलानें लगे। सुबह उसका दूध निकालनें के बाद गाय वाला चश्मा पहना कर उसे बाहर ले जाता फिर वह शाम को ही वापस आती। बांधने की जगह को वो धो कर साफ रखता, अगर फिर भी गोबर कर देती तो उसे कम्पो कर दिया जाता। दो-चार लोगों ने उपले बना कर अपनीं बालकनी में सुखाए थे, ऐसा मैंने देखा। एकाध लोग छुप कर उसका मूत्रा भी बोतल में ले जाते दिखे, पता नहीं क्यों?

मैं अपनी जरूरत भर का दूध लेकर बाकी टोंटी वाले घड़े में भर कर वहीं रख देती, लोग अपनीं जरूरत के हिसाब से दूध ले जाते। अभी दूध के विक्रय की योजना नहीं बना पाई थी मैं। मैंने गाय को कभी भी पार्क की तरफ भेजा ही नहीं, वहां बहुत घांस लगी है कहीं ये चरने ना लग जाए या कभी ये गोबर ना कर दे और लोगों को परेशानी उठानीं पड़े। लेकिन फिर अचानक मेरी गाय का विरोध शुरू हो गया। ‘‘अरे कैम्पस में गाय कौन पालता है? हटाओ इसे!’’ मैंने अपनीं क्षीण आवाज में समझाना चाहा ‘‘गाय हमारी माता है, गाय के गोबर से खाद बनती है, ईंधन बनता है।“

लेकिन विरोध के स्वर बढ़ते गये, मैं बोलती रही मेरी गाय ने कभी भी इधर-ऊधर गोबर भी नहीं किया। पर नहीं, मेरी गाय को बाहर कर ही दिया गया। मैं चिल्लाती ही रही… इसी चीखम चिल्ली में मेरी आंख खुल गई। आंख मल कर यह तसल्ली तो हुई कि ये एक सपना ही था।

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