by Jyoti Bhatia (9899995521)
प्रत्येक वर्ष की भाँति इस वर्ष भी दिवाली के उपरांत धुएँ और गर्दे के गुबार चीख चीख कर कह रहे हैं की हम अभी भी नहीं सुधरे। दिवाली का उत्साह पहले से ही डर में तब्दील होने लगता है कि दिवाली के बाद साँस कैसे लेंगे!
लोग अभी भी पटाखे जला रहे थे पड़ोस में और हम अपनी रंगोली, अपने फूलों और अपने घर की सजावट पर इतरा रहे थे! हमें यह तो सुकून था कि हम हवा में और जहर नहीं घोल रहे। हालाँकि काफी लोग अब समझदार हो गए हैं और कुछ प्रयत्न कर रहे हैं इस श्रेणी में आने का.. दिल से धन्यवाद उनको जिनको स्वच्छ पर्यावरण का महत्व समझ आ रहा है। चाहे सोशल मीडिया के माध्यम से या फिर मित्रों द्वारा या फिर स्कूल जाने वाले बच्चों द्वारा। जो लोग सचेत हो गये हैं, उनसे आशा की जाती है वो और लोगों को भी अपने साथ जोड़ें। अच्छी या बुरी दोनों आदतें छोटे स्तर पर आरंभ होती हैं। किस आदत का विस्तार और प्रचार करना है, आप तए कीजिए।
पटाखे भी अब “ग्रीन” आने लग गये हैं। पर जलेंगे तो वो भी!
परंतु क्या हम पारंपरिक तरीके से दिवाली जैसे खुशियों भरे त्योहार का आनंद नहीं ले सकते? मित्रों संबंधियों के साथ या फिर अपने पड़ोसियों के साथ त्योहार मनाने का अपना ही आनंद है। पटाखों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी!
वैसे हम सुधरेंगे कब? सरकार और संस्थाओं के ऊपर सारा का सारा दोष मढ़कर, हम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकते। साँस तो हमने स्वयं लेनी है तो वायु का प्रदूषण स्तर भी हमें खुद ही तय करना होगा। अभी भी चेत जाइए वरना वो दिन दूर नहीं जब फेफड़े मना कर देंगे गंदी हवा अंदर लेने से, मुँह माना कर देगा प्रदूषित जल ग्रहण करने से और नेत्रा खुल ही नहीं पायेंगे धुएँ में। अब यह ही विकल्प बचेगा की शरीर के अंग ही हरकत में आयें हमारी हरकतों से तंग आकर!
पराली जलाने की समस्या ने भी गत कुछ वर्षों से भयंकर रूप धारण कर लिया है। सरकारों को मिलजुल कर इस विकराल समस्या का समाधान शीघ्र ढूँढना होगा।
नित्य नये नये व्हाट्सएप आते हैं प्रदूषण के ऊपर। दरअसल वो चुटकुले नहीं हैं। हमारी अंतरात्मा को कचोटते हैं यह। अभी कल ही एक व्हाट्सएप आया की आजकल हम प्रदूषण पर्व माना रहे हैं। सरकार द्वारा कुछ दिनों का अवकाश घोषित किया गया है। लोग इस पर्व को मुँह और नाक ढक कर मानते हैं.. इत्यादि इत्यादि
कितना शर्मनाक है यह सब? बीमारी के कारण लोग अवकाश लेने के लिए भी बाध्य हो जाते हैं।
इसके साथ साथ कुछ दिनों के लिए औद्योगिक इकाइयाँ बंद करने के फैसले से हमारी अर्थव्यवस्था नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है और लोगों की रोजी रोटी? कौन जिम्मेदार है?
खत्म हुई दिवाली तो
जलने लगी पराली
साँस आती नहीं
खांसी जाती नहीं
आँखें जलती हैं
कालिख नहीं सँभलती है
किस दिन का है इंतजार
अब तो सुधर जाओ यार
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