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अपनी होली तो

अपनी होली तो जितनी होनी थी, होली है।
कुर्ता पाजामा, अंगिया चोली, हंसी ठिठोली सब
धो ली है।
रती रती, चुटकी सारी खर्च दी होली है।
सूखी पत्ती किसी किताब की, किसी किताब की
होली है। अपनी होली तो जितनी होनी थी
होली है।

अब तो सब खत्म हो गया पर जब शुरू हुआ
तो क्या बताऊं कि क्या था।
रंग रंगोली, हँसी ठिठोली, सपनों की झोली,
सूरत भोली, वह हमजोली।

वह उमंग, वह तरंग, वह गुदगुदी, वह संग
उसका।
क्या सुनाऊं क्या था उस हसीन का दबदबा।
मैंने जब आंखें खोली
मेरी भी आंखें ही बोली
होली। होली। होली। और फिर होली, होली।
होली, होली। होली, होली।

उसकी मेरी, मेरी उसकी, होली जितनी होनी
थी, वह तो सब होली है।

अब ख्वाबों में भी नहीं दिखती वह सूखी पत्ती,
जो किताबों में मिला करती थी कभी-कभी।

तब दाद के काबिल हुआ करता था मैं
अब दीद के भी काबिल नहीं हूं मैं।

तब जिससे सामना हुआ करता था
बस उसी को थामना हुआ करता था।

पन्नों के उन लफ्जों में गुजरा वक्त टटोलता हूं
शायद उस बूढ़ी पत्ती का भी खिलने को मन हो
पर लगता है उसकी भी होली, होली है।

वह पत्ती किताब वाली, बड़ी शर्मीली हुआ
करती थी।
मेरा नाम लिखती थी किताबों में अपने और
दांतों में उंगली दबा लिया करती थी।

राधा सी वो आती थी जब,
मैं अपना ही बेहतर वर्जन हो जाता था।
राधामय सी होती वह, और मैं कृष्णमय हो
जाता था।

उसकी डोली के सन्ग निकल लिए सब रंग
भांग के टांग दिए सब जूते चप्पल, अब कहां
उत्पातों की टोली है।
रोली पोली, भांग की गोली, मारो गोली।
अपनी तो जितनी होनी थी होली, सब होली है।

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