कहा जाता है ,चढ़ते सूरज को सभी प्रणाम करते हैं,ढलते सूरज को नहीं किंतु छठ का पर्व इस कहावत को झूठा सिद्ध करता है, जिसमें व्रती स्त्रियां अपना पहला अर्घ्य और पूजा अस्तगामी सूर्य को और दूसरा अर्घ्य उदीयमान सूर्य को अर्पित करती हैं।
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को होने वाले इस पर्व को सूर्य षष्ठी या छठ पूजा के नाम से जाना जाता है।बिहार से आए इस पर्व ने उत्तर भारत, पूर्वांचल, महाराष्ट्र सभी जगह अपनी जड़ें फैला ली हैं।नौकरी के कारण दूर बसे पुरुष छठ के लिए अपने अपने गांव, शहरों में लौटने को आतुर हो उठते हैं, इसका अंदाजा इन दिनों गाड़ियों और बसों में उमड़ती भीड़ से सहज ही लगाया जा सकता है।
छठ पूजा का प्रारंभ कब हुआ, इसके बारे में कुछ ज्ञात नहीं है किंतु महाभारत में द्रौपदी छठ पूजा करती थी, इसका उल्लेख है।दानवीर कर्ण भी प्रतिदिन सुबह सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही अपनी दिनचर्या आरंभ करते थे।इस तरह यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्राचीन है। स्त्रियां अपने पति, संतान और परिवार की सुरक्षा के लिए बड़ी श्रद्धा से मां कात्यायिनी के इस व्रत को करती हैं, जिसे कालांतर में छठ माई का नाम दे दिया गया।तीन दिन का यह व्रत पहले दिन मीठा अल्पाहार और फिर पूरे 36 घंटों तक निर्जल उपवास के साथ किया जाता है।
दूसरे दिन निर्जल रह कर सायंकाल जल में खड़े रह कर पश्चिम की ओर अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देकर और तीसरे दिन ब्रह्म मुहूर्त से ही जल में खड़े रह कर पूर्व में उदय होते सूर्य को अर्घ्य और नैवेद्य अर्पित कर यह व्रत संपन्न होता है।नैवेद्य में इस मौसम में मिलने वाले सभी फल, सब्जियां और नारियल रखा जाता है क्योंकि सूर्य देव की कृपा से ही सारा वनस्पति जगत है।इस नैवेद्य का प्रमुख अंग है ठेकुआ, जो गेहूं के आटे में गुड़ और घी के मिश्रण से बड़ी पवित्रता से शुद्ध घी में बनाया जाता है।सबको प्रसाद देने के पश्चात ही व्रती स्त्रियां जल ग्रहण करती हैं।
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