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हिन्दी भाषा की विविधता

हिन्दी हमारी मातृ भाषा है। हिन्दी में वर्णो का प्रारंभ भी अ आ से ही होता है प्रतीत होता है जैसे ओम् ओंकार ही इसके उत्पति स्रोत रहे हो, इससे हम इसे देवभाषा की उत्तरधिकारी मान सकते है। इसकी वर्णमाला स्वर और व्यंजनो के मेल से चलती है। शब्दोच्चारण के लिए स्वर के व्योस की आवश्यकता पड़ती है। सभी शब्दों की अपनी अपनी पहचान होती है और उसका अपना अपना अस्तित्व भी होता है। सर्वप्रथम तो यह जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी भी जाती है। इसमें कहीं भी मूक शब्दो का प्रयोग नही होता। यदि ध्वनि कण्ठ से निकल रही है तो वैसा ही प्रयोग है और यदि ध्वनि का स्पर्श होंठो से हुआ है तो वैसा ही शब्दो में उसका समावेश है। व्याकरण की दृष्टि से देखा जाये तो वो भी सन्धि समास विशेषण कारक प्रत्येक का अपना निर्धारित स्थान है और वैसा ही रहता है। हिन्दी भाषा में दूसरी भाषाओं कें शब्द भी आकर एकासार हो जाते है। विभिन्न प्रकार के शब्दों के समावेश के उपरांत भी इसका अपनापन लुप्त नही होता और न ही कोई लिपि परिवर्तन होता है। हिन्दी भाषा की विविध विधाओं में गद्य, पद्य, सभी प्रकार के उपन्यास, नाट्य में इसका भाषा सौन्दर्य और भी निखर कर आता है। इस भाषा में कहीं धन्दोवध्द स्वर लहरी अपना प्रभाव दिखाती है वो कहीं पर मुहावरे अपनी अनूठी घटा बिखेरते है। किसी भी भाषा में दूसरी भाषाओं को अपनाने में कोई क्षमता है तो वह है हिन्दी भाषा! इसकी सरलता, सौम्यता ही इसको मातृ-भाषा के पद पर शोभान्वित करती है। यह जन मानस की भाषा है और भावो को व्यक्त करने का सशक्त सरल माध्यम हैं। इसका भविष्य उज्जवल है।

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