शांति के कुछ क्षण कफेटेरिया में काॅफी पीते बिताना चाह रहा था कि तभी 7-8 teenagers, जो शायद स्टूडेंट्स थे, हल्ला मचाते अंदर घुस आए। कैफै की खिड़की से मैंने उन्हे कार पार्क करते, हुड़दंग मचाते देख लिया था। उनके लिए मस्ती शोर मचाने में था। सोचा अब कहाँ शांति मिलेगी। लेकिन काॅफी आ चुकी थी। मैं इन युवाओं की, आधुनिकता के नाम पर, बेशर्म गाने और गालियों से भरी बातें सुनने के लिए अभिशप्त हो चुका था। थोड़ी देर ‘अबे तू वहाँ बैठ…’ ‘वहाँ तेरा खसम बैठा है?…’ ‘वहाँ नजारा देखने को मिलेगा। टाँगे दिखेंगी निकर से,’ ‘साले हमें आवारा कहते हैं। इन्हें कहो की टाँगे ढंक कर रखा करें। हमारा मूड खराब हो जाता है। ‘‘अबे खराब नहीं, बन जाता है…’ और फिर जोर से फूहड़ हंसी।
ठहाकों के बीच-‘वो साली चुड़ैल है न? उस दिन मंदिर में जैसे गई थी, देखने वाली चीज थी। ‘हालटर्स’ में। वो भी अपने बाप के साथ।’ ‘वो और मंदिर? यार भांग पी रखी होगी या बापू ने जिद की होगी।’ ‘भगवान को seduce कर रही होगी’ ‘घंटा seduce! टांगो के अलावा मुंह, सिर भी होना चाहिए।’ ‘अबे मुंह पर रूमाल डाल दियो।’ ‘पुजारी और भक्तों की तो निकल पड़ी होगी!’ ‘आज आई नहीं?’ ‘बुलाया है, शायद आ जाए। ‘‘वो किसी एक की है क्या? किसी को फ्लाइइंग किस, किसी को लव मेसेजेस। आशिक नजरों से बांध के रखती है, एक साथ पाँच लोगों को। सबको लगता है उसी से फंसी है। ‘‘पर सीरीअस तो वो उस सप्लाइअर के साथ है। खूब पैसे लुटवाती है उसके।’
‘अबे बातें ही खोदोगे के कुछ पीने-वीणे का भी प्रोग्राम है?’ ‘अबे ओय साले, बियर मँगवा।’ ‘अबे ये फटो है।’ ‘मैं क्यों मँगवाऊँ? चल डच करते हैं, सब अपना-अपना देंगे।’ ‘ये अपना-अपना कैसे दिया जाता है?’ और ठहाके।
‘ला ‘डोप’ दे। यहाँ हुक्का-शूका है के नहीं? अबे ओय वेटर की औलाद! अबे कैफै है या सत्संग घर! अबे कोई ड्रग-व्रग पार्टी रखा करो सालो। नहीं तो इसके मालिक की तो लग जाएगी’। और फिर गाली।
मुझे शर्म न आ रही होती तो गालियां भी लिख देता। पर मुझे तो ‘साला’ भी एक भयंकर गाली लगता है। विवश था। काॅफी व्यर्थ नहीं जाने दे सकता था। इतने पैसे नहीं होते मेरे पास।
‘अबे अपनी ‘हार्ले’ दे न।, उसे घुमाना है।’
‘अबे पिछली बार इसने सारी रात बिताई उसके साथ और सुबह पूछा ‘सुनो, तुम्हारा नाम क्या है?’ और ठहाके। और बदतमीजी और गंदी गालियां सही नहीं गई तो वेटर को बुलाया, ‘इतना शोर मचा रहें है ये लोग। रोकते क्यों नहीं?’
वेटर की शक्ल रुआन्सी हो गई, ‘कैसे रोके सर? एक तो लड़कियां, ऊपर से बड़े बाप की। एक कम्प्लैन्ट और हमें अंदर करवा देंगी।’
फिर पुचकार कर कहा ‘कोई नहीं सर, अभी चली जाएंगी। आपकी उम्र हो चली है। बुरा लगता होगा। पर ये माॅडर्न ट्रेंड है। सदियों से दबी स्त्राी जाति को अब आजादी मिली है।’
उसे कैसे बताता कि उनकी उम्र में हम लड़कों को भी ऐसा व्यवहार करने की, ऐसी गालियां देने की अनुमति नहीं थी? पर वो मुझे बताता रहा की यही आजादी है। मेरी नजर में कल्पना ऐस्ट्रनाॅट और विदुषी स्त्रिायाँ घूम गई जो जब आजाद हुई, सदियों के बंधनों से, तो बड़े काम करने के लिए। सिर्फ निक्कर, टँक-टाॅप पहन कर, कल तक जिन लड़कों की हरकतों पर गुस्सा करती थी, उनकी नकल करने के लिए नहीं।
क्यों तलवार उनके हाथ से छीन कर इनके हाथ में दे दी गई है? लेकिन मैं वैसे ही बैठा रहा।
by Dinesh Kapoor (PH-1, 9810020179)
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