हिेदुओं के लिए मूर्ति तभी पूजनीय है जब उसमें देवता की आध्यात्मिक ऊर्जा समाहित हो। मूर्ति पूजा की प्रथा वैदिक काल से चली आ रही है। अगर हम पुराने समय की बात करें तो मूर्तियां पत्थर धातु या फिर लकड़ी से बनाई जाती थीं। बाद में मिट्टी और धीरे-धीरे प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां बाजार में आ गई। गांव कस्बे में हमारे बचपन में हम लोग बामी की मिट्टी से शिवलिंग अथवा अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाया करते थे, और उनको पूजा अर्चना के बाद किसी साफ नदी में बहा दिया करते थे। अभी भी हिंदू धर्म में दिवाली के समय लक्ष्मी गणेश की पूजा नई मूर्तियां लाई जाती है और पुरानी मूर्तियों को नदी या किसी अन्य जल स्रोत में विसर्जित कर दिया जाता है। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं बड़े शहरों जैसे दिल्ली-एनसीआर में ज्यादा जल स्रोत न होने के कारण हमें पूजा की सामग्री एवं मूर्तियों को विसर्जित करने के लिए किसी दूसरे स्थान पर जाना पड़ता है जहां नदी या कोई जल स्रोत हो। लेकिन शहरों की तेज भाग-दौड़ और युवा पीढ़ी के पास समय न होने के कारण हम इन मूर्तियों को किसी पीपल के पेड़ के नीचे, किसी दीवार पर या अन्य किसी भी कोने वाले स्थान पर रख देते हैं या अपने घर पर काम करने वाली सहायिका को पकड़ा देते हैं। त्योहारों के बाद पेड़ों के नीचे पड़ी हुई पूजा सामग्री एवं मूर्तियों को देखकर बहुत ही आश्चर्य होता है कि जिनकी हमने साल भर पूजा की उनको ही कचर में फेंक दिया। यह मनुष्यों द्वारा किया हुआ भगवान का बहुत ही बड़ा अनादर लगता है। ईलीट होम्स एवं आसपास की सोसाइटी में पूजा सामग्री और भगवान के वस्त्रा आदि की विधिवत रीसाइक्लिंग के लिए डोनेशन ड्राइव की गई। जिसमें मूर्तियों को अलग-अलग तरीके से रीसायकल किया जा जाता है जैसे मिट्टी की मूर्तियों को पानी में ही गला दिया जाता है और उसको किसी बगीचे में डाल दिया जाता है, दूसरा जो मूर्तियां पी. ओ.पी. की बनी होती हैं उनको तोड़ कर करके उनसे गमले या पशु पक्षियों को पानी रखने के लिए छोटे बर्तन बनाए जाते हैं और भगवान के कपड़ों को आगे रीसाइकलिंग के लिए पानीपत भेजा जाता है। उनसे नए कपड़े तैयार किए जाते हैं। इसी संदर्भ में मैंने और वैशाली जी ने सेक्टर 77 में पेड़ों के नीचे से करीब 100 मूर्तियां सम्मान पूर्वक इकट्ठी की और उनको रीसाइकलिंग के लिए भेज दिया। क्या ये स्थाई समाधान है? अगर हम स्थाई समाधान (सस्टेनेबिलिटी) की बात करें तो हम अपने तरीके बदल कर देख सकते हैं, और हर साल नई मूर्तियां लाने के जगह पर चांदी या अन्य धातु की मूर्तियां रख कर उसे ही हर साल गंगाजल से साफ करके फिर से पूजा में रख सकते हैं, इस से काफी हद तक हम मूर्तियों को इधर-उधर फेंकना कम किया जा सकता हैं। कई स्थानों पर गाय के गोबर से बनी हुई इको फ्रेंडली मूर्तियां भी चलन में आ गई हैं जिनको घर पर ही विसर्जित करना आसान हो गया है। अगर हम इस विषय को गंभीरता से सोचें तो हम अपने धर्म की रक्षा के साथ-साथ अपने धर्म की इज्जत भी करेंगे और आने वाली पीढ़ी को भी अच्छी शिक्षा दे सकेंगे।







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