यह नज़म मेरे भाई रविन्द्र नाथ सहगल ने अपनी मौत से कुछ टाइम पहले हमे सुनाई थी। जो उनके अपने शब्दों मेंः- मौत का एक दिन मुकरर है, क्यो रात भर नही आती, आरजू है मरने की, मौत आती है पर नही आती, पहले आती थी आले दिल पर हंसी, अब किसी बात पर नही आती जानता हूं तो आवताज (ख्यालात) पर, तबीयत से डर में नही आती!
शाम के धुधले अन्धेर में घर में एक गोशे के आवेश में बैठे थे गुजरे सालो की याद करते हुए सोचते होंगे दूर सपनो की वादियो में कही एक घर या जो अपना था रह रहे थे बहुत खुशी से, पंहा हर घड़ी एक सुहावना सपना था, हसते बचपन का साथ या हर दम, हर तरफ खुशियों का दौर दौड रहा था, दोस्तो की मुसरत से वक्त कुछ और भी हसीन बनता, जहे नसीब किस्मत को मंजुर न था वक्त की एक करवट ने सब कुछ यू बदल डाला, वह घर छूटा, वह जहाँ छूटा वह सारा आसमा छूटा बसे यहां आकर जिस जगह आके किस्मत से आना था, यहाँ उम्मीद है दिल में कि एक दिन ऐसा आयेगा, रहगे फिर पहले की तरह, लोटेगे उसी घर में।
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