कठिन तपस्या का पर्वः छठ
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को होने वाला यह पर्व छठ के नाम से प्रसिद्ध है। बिहार से प्रारंभ होने वाले इस पर्व ने उत्तर भारत, पूर्वांचल और महाराष्ट्र तक अपनी जड़ें फैला ली हैं और प्रतिवर्ष यह और भी विस्तृत होता जा रहा है।
इस पर्व का आरंभ कब से हुआ यह अज्ञात है किंतु महाभारत काल में द्रौपदी ने छठ पूजा कर पांडवों का राज्य और वैभव फिर से प्राप्त किया था, इसका उल्लेख मिलता है। अंग देश जो अब भागलपुर है, वहां के राजा कर्ण प्रतिदिन सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही अपनी दिनचर्या प्रारंभ करते थे। इस तरह यह व्रत अत्यंत प्राचीन और महत्वपूर्ण है।
जिसे बिहार में छठ माई कहा जाता है वह दुर्गा मां का छठा रूप कात्यायनी देवी हैं। कात्यायन ऋषि के आश्रम में प्रकट होने के कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ा, जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की देने वाली होने के साथ ही शत्राुओं का संहार भी करती हैं। शायद इसीलिए पति, संतान और परिवार की सुरक्षा के लिए महिलाएं यह व्रत करती हैं। इसमें सभी फल, सब्जी, नारियल और विशेष नैवेद्य ठेकुआ का नैवेद्य अर्पित किया जाता है क्योंकि सूर्यदेव कृपा से ही हमें यह सब प्राप्त होता है। यह पूजा हमें कई महत्वपूर्ण संदेश देती है। उगते सूरज को तो सभी प्रणाम करते हैं किंतु इस पूजा में पहला अर्घ्य अस्त होते सूर्य को और दूसरे दिन उदीयमान सूर्य को दिया जाता है। अर्थात हमें जीवन में आने वाली कठिनाइयों और खुशियों को समान भाव से स्वीकार करना चाहिए।
दूसरा संदेश नदी या तालाब के किनारे अर्घ्य देने के लिए एकत्रित महिलाएं देती हैं। जहां न कोई छोटा होता है और न बड़ा। न कोई अमीर है न कोई गरीब।
नदी तट सबका है और पूजा के बाद सभी महिलाएं चाहे परिचित हो या अपरिचित, एक दूसरे से प्रसाद मांग कर लेती हैं। समानता और सहृदयता का यह संदेश कितनी आसानी से दिया जाता है इस पूजा के माध्यम से।
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