आज से लगभग कुछ साल पहले की ही बात है जब Whatsapp ने हमारी जिन्दगी में प्रवेश नहीं किया था। किसी से बात करनी हो तो या तो हम उनके घर चले जाते या फिर फोन उठा कर उनसे बात कर लेते। बेधड़क किसी के भी घर चले जाना और चाय की फरमाइश कर देना एक आम बात थी। गरमा गरम राजमा और कढ़ी भाग कर साथ वाली आंटी के घर भेजना और बदले में कटोरी भर मिठाई लेकर वापस आने का अपना ही मजा था।
फिर Whatsapp आ गया और हम जकड कर रह गए इसके मन बहलावन के तरीकों में। अरे फोन क्यों करना?Whatsapp कर दो. कुछ अच्छा बनाया है? वीडियो Share कर दो। जन्मदिन है किसी का? मैसेज भेज दो…एक अच्छे से गुलदस्ते की फोटो के साथ। ये आवारा कुत्ते बहुत तंग कर रहे हैं आज कल? चलो एक Whatsapp ग्रुप बना लो।
छ पशु प्रेमियों को और कुछ सरकार को खरी खोटी सुना लो। अकेलापन महसूस हो रहा है? चलो एक दोस्तों की मंडली का Whatsapp ग्रुप बना लो।
यूँ करते करते इन कुछ महीनों और सालों में न जाने हम कितने मेसेज भेजते चले गए, कितने ऐसे ग्रुप्स का हिस्सा बनते चले गए।
फिर भला न जाने क्यों इतने लोगों से इन ग्रुप्स से जुड़े होने के बावजूद आज भी मन उदास हो जाता है। किसी से मिलने को, दो बातें करने को तरसता है। फोन पकड़े पकड़े, इन ग्रुप्स में अपनी राय का आदान प्रदान बेमानी सा लगने लगता है। इस मशीनी दुनिया में हमने खुद को इतना उलझा लिया कि हम भूल ही गए कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमें लोगों से मिलना, बातें करना, प्रेम करना, लड़ना झगड़ना.. .सब पसंद है। और सबसे ज्यादा पसंद है, लोगों के साथ, उनके करीब रहना। इस फोन ने और सोशल मीडिया ने हमें अपने ही घरों में कैद कर दिया। एक ही घर में रहने वालों को एक दुसरे से दूर कर दिया। हम इन सब छलावों में इतना खो गए हैं की हमें वही दुनिया असली लगती है। वो ग्रुप्स जिनपर हम घंटों चैटिंग कर लेते हैं, वो ज्यादा करीब और अपने दोस्त रिश्तेदार जब सामने मिलते हैं तो थोड़े अजनबी से लगते हैं।
क्यों न हम इन ग्रुप्स को बस एक सहूलियत तक ही सीमित करें? आपस में ज्यादा मिलें। कभी एक कटोरी कढ़ी के बहाने अपने पडोसी के साथ कुछ वक्त बिता आएं? अगर अकेलापन दूर करना है, तो हमें अपने लोगों की ही जरुरत पड़ेगी। इन मशीनों की नहीं। तो क्यों न एक बार फिर सच्ची जिन्दगी जी जाए? ताकि अगर हमारे पडोसी को बागबानी में कुछ मदद चाहिए हो, तो इस बार वो Whatsapp ग्रुप में न जाएँ सीधा हमारे घर आएं।
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