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कौन हो तुम अजनबी सी

कौन हो तुम अजनबी सी
जिसके आने से मेरे मन की कली खिल गई है
दिन सुहाने और शाम-ए-फुरसत हसीन हो गई है
कौन हो तुम अजनबी सी

जेठ आषाढ़ में शीतल झोंको सी
सावन में रिमझिम बूंदों सी
पूस माह के महीने में बिखरती चमकती धूप सी
कौन हो तुम जो लेकर बहार आ गई हो
कौन हो तुम अजनबी सी

तुम आती हो तो खुश होकर चहकती
लहकती रहती हूँ
बन सँवर खुशबुएं उड़ाती
इत्रा सी महकती रहती हूँ
कौन हो तुम जो मुझे मेरे होने का एहसास करा गई हो,
कौन हो तुम अजनबी सी
देखो, इतरा के अब तुम चली न जाना
मन बगिया गुलजार कर रूठ न जाना
अगर जाना भी पड़े तो
मुस्कुराती सुबह सी लौट जरूर आना
कौन हो तुम जो रौनक मेरे आंगन की बन गई हो
कौन हो तुम अजनबी सी

पहचाना, कौन है ये अजनबी पहेली सी
घर की हमराज भी कभी पुरानी कभी नवेली सी
कभी शोभा, कभी सलमा, कभी रोजी कभी अनामिका
ये हैं मेरी कविता की नायिका
मेरे घर में मेरी सहायिका

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