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होला-मोहल्ला

जहां सिख कौम के शौर्य के किस्से मशहूर हैं, वहाँ दरियादिली में भी वो हमेशा आगे रहे। हीर-रांझा और सोनी-महिवाल के सीने में प्रेम और शांति के साथ-साथ फौलाद भी पूरी मात्रा में रहा। दशम गुरु, गुरु गोबिन्द सिंह जी ने इसी विचार को लेकर होला-मोहल्ला की शुरुआत 1680 में शस्त्रा और शौर्य के प्रदर्शन के रूप में की।

होला, होली का मर्दाना नाम। 1701 से, ये त्योहार हर साल मनाया जाने लगा। इस साल 25 से 27 मार्च तक होला-मोहल्ला मनाया गया। इसके साथ एक नई संस्कृति सामने आई – नथिंग फेमनिन। राक्षसों के आगे कोई म्रदुलता नहीं।

गुरु महाराज ने होला समझाया। हम एक समुदाय में शांति से रहने के पक्ष में हैं पर कोई अत्याचार करेगा, तो नहीं सहेंगे। हम लड़ेंगे। होला-मोहल्ला इसी साहस और वीरता के रूप में स्थापित किया गया।

लड़के और मर्द कृपाण, ढाल, भाले और तलवारों ले कर एक बनावटी लड़ाई लड़ते हैं। अपनी युद्ध-क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। संदेश स्पष्ट है। हम शांति, प्रेम और दया के उपासक हैं मगर टेढ़ों को सबक सिखाना आता है हमें।

उन दिनों, क्रूर औरंगजेब का दौर था। सिख पंथ दया भाव से भरपूर है। पर लड़ाई में किसी से कम नहीं थे। सारागढ़ी का युद्ध याद है न? कैसे 21 वीर सिख लड़ाकों ने दस हजार अफगानियों की वाट लगा दी थी।

लेकिन वो लड़े ‘दीन के हेत’। लूटपाट और जबरन धर्म परिवर्तन के विरुद्ध। पर एक समस्या थी। आम शिकायत थी कि अपने जैसे दिखते दुश्मन को कैसे पहचाना जाए। तब गुरु महाराज ने 5 मंत्रा दिए जिसमें प्रमुख था केश अर्थात सिर और दाढ़ी के बाल न काटे जाए। इससे वे अलग दिखेंगे।

कई साल विदेशों में रहा। पश्चिमी सभ्यता में एक मुहावरा है -there are no free lunches- अगर किसी ने इसे गलत सिद्ध किया, तो केवल गुरु के लंगर ने। जो होला-मोहल्ला के दौरान और उसके बाद एक परंपरा बन गया।

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