मैं सरोज अग्रवाल और सुषमा जैन नियत समय, लगभग 11 बजे, प्रयाग शुक्ला जी के आवास (पार्श्वनाथ प्रेस्टिज) पर पहुंच गये। बातचीत का समय तो हमने ही मांगा था, पर सच पूछिए तो मैं ही निशब्द थी। ऐसा नहीं कि मेरे मन में प्रश्न नहीं थे, बल्कि यही सोच रही थी इतनें बड़े प्रतिष्ठित बहुमुखी प्रतिभा के धनी, जिनके बारे में पहले से ही जान चुकी हूं, पढ़ चुकी हूं, क्या और पूछूं। किन शब्दों का चयन करूं कि मेरी मूढ़ता उजागर ना हो… इधर-उधर मैं देख रही थी– अलमारी में सजी अनेकों पुस्तकें, दीवारों पर या साइड टेबल पर बहुत आकर्षित करतीं पेंटिग्स, कुछ उनकी स्वंय की और कुछ अनेंक प्रसिद्ध कलाकारों की पेंटिग्स का अनूठा संग्रह देखनें को मिला। एजल पर एक चित्रा अपनीं पूर्णता की प्रतिक्षा में… शायद हमारे आ जानें से वह वहीं रूक गया था।
प्रयाग शुक्ल जी सहज थे, अपनें बारे में कुछ बताते रहे और अपनीं कृतियों के बारे में। सामनें चित्रा को देख, हमारे पूछनें पर कि ‘‘इस चित्रा का क्या अर्थ है? उन्होंने सहज भाव से ही उत्तर दिया, ‘‘कलाकार कुछ बहुत सोच कर चित्रा नहीं बनाता, एक कूंची, ऊंगलियों का लय, दृष्टि और मन जब तृप्त हो जाएं तब चित्रा पूर्ण होता है, यही चित्राकारी है। अर्थ तो बाद में ढूंढे जाते हैं।“ यह मेरे लिए यह एक बिल्कुल नई व्यख्या थी। नई बात थी।
मेरे समक्ष बैठे उपन्यासकार, कथाकार, कवि और कला समीक्षक, सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित, विख्यात व्यक्ति लेकिन इसमें इनको विशेष पसंद का क्षेत्रा कौन सा है, जिसमें इन्हें ज्यादा आनंद आता है। पूछनें पर इन्होंने बताया ‘‘कविता’’ कविता में आनंद आता है, वह भी बच्चों की कविता लिखनें में। उन्होंने एक बाल कविता भी सुनाई, बताया कि ‘‘कविता स्वंय अवतरित होती है, हृदय से एक नदी की भांति बहती है, बिना किसी प्रतिरोध के। शब्दों को जमा कर बिठा कर कविता की रचना नहीं होती। बिल्कुल सच है। कविता नदी की तरह बहती है, अविरल।“
प्रयाग शुक्ला का जन्म कलकत्ता में 28 मई 1940 में हुआ। 18 वर्ष की आयु से इन्होंने लिखना शुरू किया और विभिन्न पत्रिकाओं में इनकी कहानियां छपतीं रहीं। दिनमान और टाईम्स आफ इंडिया के साथ लम्बे समय तक जुड़े रहे। साहित्य और कला दोनों ही क्षेत्रों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। चित्राकला और फिल्मों के समीक्षक हैं इस विषय पर उन्होंने पुस्तकें भी लिखीं हैं। इनकी बाल कविताएं एनसीआर की पुस्तकों में भी सम्मलित की गईं हैं। अभी केरल के स्कूलों में भी इनकी एक कविता सम्मलित हुई है।
प्रयाग जी से मिल कर यही लगा कि सच में उम्र एक संख्या ही है। साहित्य और कला इनके व्यक्तित्व में ही घुला हुआ हो जैसे, इतनीं उर्जा इतनी रचनात्मक्ता!! इनसे मिल कर बहुत प्रेरणा मिली, जीवन का एक-एक पल सार्थक होना चाहिए।
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