करीब 40-50 वर्ष पूर्व बचपन बहुत सुहाना था। उस समय जीवन बहुत सादा था, एक गेंद से चार-पांच भाई बहनो के साथ आस-पास के बच्चे भी खेल लेते थे। संसाधनों के अभाव में भी कंचे सितोलिया आदि खेल कर मजा लेते थे। लेकिन आज का बचपन कैसा है इसका विचार करना भी आवष्यक है। आज माता-पिता दोनों नौकरी करते है, माँ छोट-बच्चे को जल्दी उठाकर दूध का गिलास मुँह में ठूसकर झूलाघर ले जाती है। बच्चा रोता है पर माँ के पास उसे बहलाने के लिए कहाँ फुर्सत है, वह उसे छोड़कर चली जाती है। आया को भी गुस्सा आता है वह उसे चांटा लगाती है। बच्चा माँ की राह देखते-देखते सो जाता है, न कोई उसे लोरी सुनाता है न कोई गोद में लेता है। तीन साल का होने पर उसकी पीठ पर बास्ते का बोझ आ जाता है। अगर उसकी परीक्षा है तब भी माँ उसे स्कूल भेजती है। स्कूल से वापस आने पर किसी के पास उसके लिए समय न होने पर वह टीवी देखकर मन बहलाता है? थोड़े बड़े होने पर बच्चे टूषन कोचिंग में व्यस्त हो जाते है व बचा खुचा समय कंप्यूटर व मोबाइल में लगते है इससे उनकी नजर और कमजोर हो जाती है और चालीस साल में लगने वाला चष्मा बचपन से ही आँख पर आ जाता है और आँखो के वे बाल भाव चष्मे के पीछे छुप जाते है, अब बताइये सुहाना बचपन कहाँ रहा। इस प्रकार प्रतियोगिता के इस दौर में बचपन कही पीछे छूट जाता है।
आज की इस फ्लैट संस्कृति में न बच्चो के पास खेलने के लिए आँगन है न उन्हें कोई जानवर, पक्षी दिखते है ना ही पड़ोसियों से बोलचाल होती है इसीलिए हजारो रुपयों के खिलोने होने के बावजूद खेलने को कोई साथी नहीं होता। घोड़ा घोड़ा खेलने के लिए न घर में दादाजी है न कहानियाँ सुनाने के लिए दादी। खुली हवा में खेलने से शरीर मजबूत होता है। चार बच्चो के साथ खेल कर बच्चे व्यव्हार ज्ञान व मिल बात कर रहना सीखते है, प्रेरणादायी कहानियाँ सुनकर बच्चा सुसंस्कारित होता है।
आज के बच्चे कल का भविश्य है बचपन में ही उन्हें शूर वीरो व देषप्रेम से ओत-प्रोत कहानियाँ सुनाकर उनमे वीर रास व देषप्रेम के भाव जागृत करने चाहिए व सुसंस्कृारित बनाना चाहिए। हम चाहे कितने भी व्यस्त हो हमें ये दायित्व निभाना है तभी भारत का भविश्य उज्ज्वल व कीर्तिमान बनेगा।
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